नन्दन राणा के दोहे
मन मन्दिर दीपक जले,आयें शुद्ध विचार।

मन-मकरंद का मधु बने,दिशि चहुँ हो व्यापार।
एक छत्ते के मधुप सभी,करें सबका सत्कार।।
तिनका-तिनका यूँ जुड़े,बन जाये सबका नीड़।
विचार वैभव शीश हो,कायम सबकी रीढ़।
भला-बुरा कोई नहीं,है नजरों का फेर।
पूर्व उठे अंगुली तेरी,तू खुद को भी टेर।।
भाता गर हमको नहीं,कोई कटु व्यवहार।
खुद से भी ना भूल हो,रख लें याद विचार।।
भूखे को हम अन्न दें,प्यासे को दें नीर।
शक्तिहीन को हौसला,खुद की बाँधे धीर।।
तुलसी घर आँगन पले,पादप है ये ख़ास।
मन बगिया गर शुष्क है,है फिर ये एक घास।।
तन उजला तो क्या हुआ,मनवा नहीं गर तेज।
दिवस चार की है चाँदनी,फिर होगी निस्तेज।।
स्वर्ग यहीं और नर्क यहीं,होता यहीं है हिसाब।
पन्ना-पन्ना मिल बन रही,कर्मों की ये किताब।।
नेमत जिसकी जो धरी,होता उसी का दान।
खुशबू से खुशबू मिले,बू को बू ही जान।।
पुष्प सभी को बाँटिये,राह बने आसान।
शूल सभी मिट जायेंगे,बात धरो ये ध्यान।।
माटी माटी से मिले,कोई नहीं सौगात।
नाहक भ्रम हो पालते,होने को है रात।।
सर्वाधिकार सुरक्षित-नन्दन राणा
1 टिप्पणियाँ
सस्नेह आभार भ्राता।
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