सागर के दोहे..........
मित्रता
पावन इसकी भोर।
पथ दर्शाती है सदा ,
थामे सबकी डोर ।।
२- किससे रिपुता मैं करूँ,
सब तो मेरे मीत ।
इसी नेह पर है टिकी ,
इस जीवन की जीत ।।
३- दाता इतना दीजिये,
बनूँ सभी का मीत ।
हारूँ तो सब रो उठें,
हँसें मिले जो जीत ।।
४- धरती माता को सदा ,
भाते हैं वो चित्र ।
रिपुता छोड़ेंजगत से,
बन जायें सब मित्र ।।
५- लगे धरा कितनी सुखद ,
आपस में हो नेह ।
सकल जगत परिवार हो ,
सकल धरा हो गेह ।।
६- उर में जितना नेह है ,
जिसके जितने मीत ।
उतनी उसकी सफलता,
उतनी उसकी जीत ।।
©डा० विद्यासागर कापड़ी
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2 टिप्पणियाँ
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जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजबाब।
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