डा०विद्यासागर कापड़ी के दोहे
पिय तो हैं परदेश ।
उमड़-घुमड़ तू गगन में,
खोल रहा है केश।।
२-घन तू होके बावरा ,
बरसाये जलधार ।
बरसे मेरे नैन भी ,
पिय मेरे उस पार।।
३-नील गगन में तू उड़े,
ले सतरंगी वेश ।
कभी धवल सी चांदनी ,
या कजरारे केश ।।
४-जा घन जा पिय देश तू ,
ले जा यह संदेश ।
मन तो है पिय पास ही ,
हाड़ यहां हैं शेष ।।
५-घन जा पिय के देश तू ,
करना यह उपकार ।
कहना पिय तेरे बिना ,
जीवन है बेकार ।।
६-घन है तुझसे भी अधिक ,
इन नयनों में नीर ।
तू सावन का बावरा ,
कहां सुनेगा पीर ।।
७-पिय तेरे उर हास है ,
मेरा उर बेचैन ।
जब-जब भी छाये घटा ,
यहां बरसते नैन।।
८-घन के अन्दर नीर है ,
नयनों में है ताल ।
दोनों ही बरसैं तभी ,
जब चाहैं गोपाल ।।
©डा०विद्यासागर कापड़ी
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