मेरे दोहे
1-कौन देखता घन यहाँ ,कौन झूलता डाल |
धन की गठरी बाँधते ,बुनते सब जंजाल ||
2-घन ही तो करते यहाँ ,धरणी का श्रिंगार |
मुस्काते हैं खेत सब ,हँसती वट की डार ||
3-घन की चादर ओढ़कर ,मनहर लगता व्योम |
वसुधा हित वो मुदित हो ,बरसाता है सोम ||
4-सावन भादो मास में ,घन का नर्तन देख |
कवि गढ़ते कविता नई ,लेखक लिखते लेख ||
5-पयस्विनी भरकर चली ,तन बल का भण्डार |
अपनी बाँह पसारती ,मचता हाहाकार ||
©डाoविद्यासागर कापड़ी
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