कृषक मन व्यथा
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रोता हृदय क्षितिज सुकुमार।
कोस रहा अपनी किस्मत को,
खेत खलिहान की मेंढ ढोकर।।
अप्रत्याशित रूदित अश्रुओं से,
आसमां देख प्रलाप कर रहा।
नित नये स्वप्नों की उम्मीदें भर,
अपने खेतों की माटी चूम रहा।।
जहां भी दूर दूर नजर दौड़ाएं,
बंजर बन गये खेत खलिहान।
जिन चूल्हों पेट की भूख मिटती,
सूखाग्रस्त हो गये मन उद्यान।।
तरसती सरकारी अमला को,
बाटजोट कर आंखें सूख गयी।
कब तक किस्मत रोना रो कर,
न जाने कितनी जाने लील गयी।।
काले बादल उमड़ घुमड़ करते,
हिम्मत न जाने कहां डोल गये।
कृषक की बैसाखी होते थे पर,
हवा में पथ अपना भूल गये।।
अन्नपूर्णा भविष्य निधि बनकर,
दिल पर पत्थर रख कर्म किया।
मिला क्या शरीर धूप तपाकर,
खेतिहर मन केवल दर्द मिला।
अन्नदाता न रहेगा जब दुनियां में,
भूख त्रस्त विश्व में अंधेरा छायेगा।
मवेशी जैसा यापन होगा जीवन,
चारे में सूखा घास फूस मिलेगा।।
सुनील सिंधवाल "रोशन" (स्वरचित)
काव्य संग्रह "हिमाद्रि आंचल"।
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