कविता फूटती जब
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कविता मरहूम बनी मन आवाज होती।रंग रूप भेदभाव अनभिज्ञ भाव होती।।
कभी कभी बैराग्य मन आंगन में,
भावना कविता बनकर मचलती।
लाख रोकती मन मस्तिष्क से,
बरसाती धारा बन स्वयं निकलती।
कविता मरहूम बनी--------
आकुल व्याकुल मन स्थिति कर,
छटपटाहट में मूक बन बहती।
दबी दबी थी जो अंतर्मन में,
आज खुली हवा अहसास करती।
कविता मरहूम बनी------
चार कदम से धरती में चलकर,
समस्त ब्रह्माण्ड का सुख पाती।
क्षणिक अंतराल निगाह डालकर,
सुकून भरे पल अनुभूति करती।
कविता मरहूम बनी--------
परवाह नहीं शब्दों में बंधने की,
अपने प्रवाह से बेफिक्र रहती।
सुख-दुख ऊंच नीच गरीब अमीर,
सत्य सोचने को मजबूर करती।
कविता मरहूम बनी--------
सुनील सिंधवाल "रोशन" (स्वरचित)
काव्य संग्रह "हिमाद्रि आंचल" ।
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