ओ निराकार...........
बिखराते हो किस बिधि से इन गिरि शिखरों पर।
तुम ओढ़ाते हो नगेश को धवल आवरण ,
सुस्पन्दन भर देते हो उर की लहरों पर ।।
बिलक्षण वृषभ जोतते होंगे भू को,
और रजत जड़ित ही तुम्हारा हल होगा ।
सींचते होंगे रजतजल से सुकुमार वहाँ ,
देवलोक की सुरसरी का प्रतिफल होगा ।।
गाकर मधुर गीत बीज छिड़कती हैं परियाँ ,
या मुदित हो श्रमसीकर निकालते हलधर ।
ये मनहर पुहुप हैं तुम्हारी वाटिका के,
या हैं अधरों से निकले श्लोकों के निर्झर ।।
भरी होंगी हृद जीवनोदक से तुमने,
शुभ रजत कलश से छिड़कते होंगे देवगण ।
बता दो निराकार अपने अपत्य को अब तो,
उगाते हो कौन सी भू पर तुम रजतकण ।।
©डा० विद्यासागर कापड़ी
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