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Madhushala Dr. Vidhyasagar Kapri Ki Part 3 मधुशाला डॉ. विद्यासागर कापड़ी की भाग 3


सावन की मधुशाला......


भीग-भीगकर पीता हूं मैं,
                 घन ने भेजी है हाला ।
Madhushala Dr. Vidhyasagar Kapri Ki सजी धरा पर है सावन की,
         आज मधुर सी मधुशाला ।।
  
बूंदों को चुन-चुनकर के,
             इन नयनों में भर डाला ।
आयेगी कब घड़ी मिलन की,
          कब छलकेगी मधुशाला ।।

ईश्वर ने भेजी है भू पर ,

             अमृत सम पावन हाला ।
मैं सोचूं मैं ही पीता नित ,
              बन उर से पीने वाला ।।

नव रंगों को उड़ते के,
             घोल-घोलकर है डाला ।
तब जाकर ये सजी ईश की,
           नभ में पावन मधुशाला ।।

पता नहीं कब तक हो सावन,
           सजे कहां तक मधुशाला ।
भू का कण-कण आज बना है,
         छक-छककर पीने वाला ।।

साजन कहता सजनी से हूं,
                 नयनों से पीने वाला ।
चलो डाल पर झूले में तुम,
         छलकी घन की मधुशाला।।

विरहन कहती सुनो बदरिया,
               तपन बढ़ाती है हाला ।
पिया नहीं हैं साथ हमारे ,
           खोलो ना तुम मधुशाला।।
  
पैमाने सूखे थे नद के ,
                थोड़ी सी ही थी हाला।
आज छलककर बहती देखो,
            अमी धार की मधुशाला।।
  
हैं लता विटप पीने वाले ,
                 घटा बांटती है हाला ।
सावन भर अब खुली रहेगी,
            गगन तुम्हारी मधुशाला।।

बरसेगी सब पर कृपा की,
     छलक-छलककर अब हाला।।
पूजक कहते चलो शिवालय,
           खोली शिव ने मधुशाला।।

©डा०विद्यासागर कापड़ी

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