सावन की मधुशाला......
भीग-भीगकर
पीता हूं मैं,
घन ने भेजी है हाला ।
आज मधुर सी मधुशाला ।।
बूंदों
को चुन-चुनकर के,
इन नयनों में भर डाला ।
आयेगी
कब घड़ी मिलन की,
कब छलकेगी मधुशाला ।।
ईश्वर
ने भेजी है भू पर ,
अमृत सम पावन हाला ।
मैं
सोचूं मैं ही पीता नित ,
बन उर से पीने वाला ।।
नव
रंगों को उड़ते के,
घोल-घोलकर है डाला ।
तब
जाकर ये सजी ईश की,
नभ में पावन मधुशाला ।।
पता
नहीं कब तक हो सावन,
सजे कहां तक मधुशाला ।
भू
का कण-कण आज बना है,
छक-छककर पीने वाला ।।
साजन
कहता सजनी से हूं,
नयनों से पीने वाला ।
चलो
डाल पर झूले में तुम,
छलकी घन की मधुशाला।।
विरहन
कहती सुनो बदरिया,
तपन बढ़ाती है हाला ।
पिया
नहीं हैं साथ हमारे ,
खोलो ना तुम मधुशाला।।
पैमाने
सूखे थे नद के ,
थोड़ी सी ही थी हाला।
आज
छलककर बहती देखो,
अमी धार की मधुशाला।।
हैं
लता विटप पीने वाले ,
घटा बांटती है हाला ।
सावन
भर अब खुली रहेगी,
गगन तुम्हारी मधुशाला।।
बरसेगी
सब पर कृपा की,
छलक-छलककर अब हाला।।
पूजक
कहते चलो शिवालय,
खोली शिव ने मधुशाला।।
©डा०विद्यासागर
कापड़ी
1 टिप्पणियाँ
बहुत ही सुन्दर
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