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Prakriti Dohan प्रकृति दोहन

आखिर ये क्या हो रहा?
कही आगज़नी कही,
कही जलमग्न सब हो रहा,
सुख -सुविधाओं की तलाश में!
वजूद स्वयं अपना मानव खो रहा।

आखिर कैसा सुख तू खोज रहा?
पैदल चलना तुझे दुःख नही दे रहा
न बरसात का मौसम तुझे भिगो रहा
मंथन करके देख स्वयं तू कष्टो को समेट रहा!

आखिर क्यों देता दोष प्रकृति को?
सुख के लिए दोहन इसका तू कर रहा,
कही नदियों को विलुप्त कर रहा,
कही पहाड़ उजाड़ खोखला कर रहा!
जीवन स्वयं अपना नष्ट कर रहा।

आखिर क्यों सज़ा न मिले तुझको?
जीवन निर्भर जिनपर तेरा,
है अस्तित्व जिनसे तेरा,
उनको ही तू चोटिल कर रहा!
हकदार स्वयं सज़ा तू बन रहा।

वक़्त है अभी संभल जा!
जरूरतों को अपनी तू अंकुश लगा,
आवश्यकताएं न को इतनी बढ़ा,
बहुत हो चुका अब ठहर जा!
वरना सज़ा पाने अब तत्पर हो जा!!

अनोप सिंह नेगी(खुदेड़)
9716959339

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