श्रावण
मनहर कुवलयों की मालैं हैं कासारों में,
निकले दादुर जलधर का पाकर आमंत्रण।|
झलक रही मुस्कानैं अटवी के अधरों में,
तट का नद पर कहाँ रहा है आज नियंत्रण।।
कुम्भी भरे हुँकार मस्त होकर कानन में,
छटा हरित पात की चितलों को पास बुलाती।
रत्नाकर. से मिलने को आतुर हैं नदियाँ ,
फड़की उत्स की बाँह चञ्चला गीत सुनाती।।
शाखामृग मुदित हो शाखी पर चढ़ जाते,
वनहरि का भी सजता है नित नूतन सिंहासन।
बनी भू दादुर,व्यालों की क्रीडास्थल,
वराह खेत में आकर पाते सुरभित भोजन।।|
मेघों का गर्जन त्रास की पाती लाता,
चन्द्रमौलि करें न मुग्ध हो ताण्डव नर्तन।
फिर भी यह मन मयूर होकर हर्षित गाता,
मिलता वसुन्धरा को मेह से नूतन जीवन।।
©डाoविद्यासागर कापड़ी
18-6-2017
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