सखी...............
चोरिकै चीर कदम्ब पर बैठे,
सखी मोहे रोज सतावत छलिया।
बय्यां मरोड़ करै बरजोरी,
देखें सबहिं न लजावत छलिया।।
रूठि के बैठि मैं बोलत नाहिं,
बंशी की धुन में रिझावत छलिया।
छुप-छुप वो सखी घर आये,
माखन,दधि सब खावत छलिया।।
पीछे पड़ूँ जब पकड़न को,
छोटे से पग धरि धावत छलिया।
पैंजन बाजे सखी धावन में,
दे उर को सुख लुभावत छलिया।।
नेह लगायो सखी छलिया सौं,
नेह की भाषा नहिं जानत छलिया।
कछु नहिं है सखी जग में री,
सखी उर मोरे तो भावत छलिया।।
©डा० विद्यासागर कापड़ी
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