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Dr. Vidhyasagar Kapri Ke Dohe Part 11 डॉ. विद्यासागर कापड़ी के दोहे भाग 11

सागर के दोहे.........
     ( मैं और तू )

१- मैं नित मैं रटता रहा ,
               तू ही था सब ओर ।
   अब जाना मैं कुछ नहीं ,

                     तू ही थामे डोर  ।।

२- मैं तो रीता सा घड़ा ,
                  तू घट-घट का नाथ ।
    मैं तब तक ही मैं रहे ,
                 जब तक तू है साथ ।।

३- मैं निपात की डाल है ,
                    तू तो है मधुमास ।
   कोरोना की मार ने,
                 करा दिया आभास ।।

४- मैं सूखी सरिता बना,
                     तू है चातुर्मास ।
     मैं सुदामा दीन अरे,
                  तू केशव का रास ।।

५- मैं माटी की मूरती ,
              तू घट वासी जान ।
    मैं ही हूँ मैं में सदा,
              मैं को है अभिमान ।।

६- मैं दोषों की पोटली ,
                   तू तो है निर्दोष ।
     मैं भूखा नित ही रहे,
                  तू के उर में तोष ।।

७- मैं ठहरा सा नीर है ,
                   तू तो बहती धार ।
     मैं निपात की वाटिका,
                  तू ऋतु का श्रिंगार ।।

८- मैं कागा के बोल हूँ ,
                 तू कोयल की कूक ।
   मैं उड़ जाता फूस सा ,
                  तू मारे जब फूक ।।

९- तू नित खिलता फूल है ,
                  मैं तो है ज्यूँ काँस ।
     तू मोहन की बाँसुरी ,
                 मैं सूखा सा बाँस ।।

१०- तू परिमल की टोकरी ,
                    मैं में है दुर्गंध ।
      मैं छूटे उर से कभी ,
                     पाऊँ तेरी गंध ।।

©डा० विद्यासागर कापड़ी
          सर्वाधिकार सुरक्षित

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1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर दोहे।
    ईश्वर ही सब कुछ है।हम सभी परमात्मा की ही सन्तान है किन्तु देहभान में आकर हम‌ सब कुछ भूल जाते हैं।

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