सखी.............

बीती उमर सखि आये न छलिया।
रोज मथूँ दधि,नौनि रखूँ री,
आये न घर सखि खाये न छलिया।।
पीपल पात हिलें तो लागत,
छोटो सो पग धरि आयो री छलिया।
आवें सपन मंद हँसत हरि,
सखि मोहे ऐसे रुलायो री छलिया।।
कछु न कहूँ, फोड़े मटकी वो,
आकर दरस दिखावै तो छलिया।
नित यमुना के तीर सखी री,
मधुरिम रास रचावै तो छलिया।।
©डा० विद्यासागर कापड़ी
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