सखी.............
कर बंशी,मोर मुकुट सिर,
सखि अधरन मुस्कान झरी थी ।
चढ़ि कदम्ब बजावत बंशी,
सखि मुरली नव रस से भरी थी।।
नैंनों गई बस मूरत वाकी,
साँवरि सूरत बंशी हरी थी ।
बात सखी यह सपनेहुँ की,
उठ जागत भोर में मैं तो डरी थी।।
सखी तबहिं दधि लेकर के ,
भर मटकी निज सिर में धरी थी।
ढूँढत जाई सखी वृन्दावन,
हरि चरनन पड़ि रोय पड़ी थी ।।
©डा० विद्यासागर कापड़ी
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1 टिप्पणियाँ
वाह!!
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