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Phooldeyi Festival फूलदेई त्योहार

-'फूलदेई त्योहार'-

एक दंतकथा हमारे बचपन मे अक्सर सुनने को मिलती थी, कि फ्योंली नाम की एक  सुंदर लड़की जंगल मे पली बढ़ी। बंदर, हाथी, मधुमक्खी पेड़ पौधे  सरीके जीव उसके दोस्त थे वो उनसे खूब सारी बातें करती, और उनके लाए फल कंदमूल शहद खाकर खुशनुमा जीवन बिता रही थी, यकायक एक समय उस जंगल में एक राजकुमार आखेट शिकार करते करते पहुँचा, और उसकी भेंट फ्योंली से हुई।
दोनों एक दूसरे से बातें करते गए,राजकुमार फ्योंली की सुंदरता पर मंत्रमुग्ध हो गया, पर फ्योंली जंगल में ही पली बढ़ी थी तो उसे इंसानों के बारे मे कुछ भी पता नही था।
उसने राजकुमार से उस जैसे और इंसानों के बारे में पूछा तो आश्चर्य हुआ कि पृथ्वी पर  राजकुमार सरीके करोड़ों इंसान है।
आखिर इस मुलाकात से फ्योंली को राजकुमार का ब्यवहार अच्छा लगा और दोनों अच्छे दोस्त बन गए।
राजकुमार ने फ्योंली से जीवनभर साथ रहने और महलों मे साथ चलने का आग्रह किया,
आखिर फ्योंली ने एक शर्त रखी कि, वो जंगल के जानवरों का शिकार करना छोड दे, और समय समय पर फ्योंली के साथ उसके जंगली दोस्तोंको मिलने आया करेंगे, इसी शर्त पर रोते-रोते फ्योंली को जंगल के जीवों ने नम आंखों से विदाई दी।
जानवरों ने खूब सारे फल फूल हाथी पर लादे और महलों तक विदा किया।
महलों मे रहते रहते कई साल बीत गए अब
महलों मे रहते रहते फ्योंली ऊब गई, उसका स्वतंत्र जीवन महलों की चाहरदीवारी में घुटने लगा, उसे अपने दोस्त बंदर हाथी तितली पेड़ पौधे सब याद आने लगे। उसका मन रत्तीभर भी महलों की शान शौकत में नही लगता था।
राजकुमार भी अपने वायदे को निभाना भूल गया और मुड़कर जंगल की तरफ फ्योंली को लेकर कभी न आया।
फ्योंली इस  अपनी माटी-थाती की वेदना को भुलाए भूल नही पा रही थी और दिन प्रतिदिन रो-रोकर जंगल की याद मे बीमार हो चली। उसके लिए जंगल उसके मायके से कम न था, और जंगली जानवर उसके मैती। बिल्कुल नंदा गौरा जैसे।
बीमार फ्योंली ने अपने अंत समय में राजकुमार का हाथ पकड़ कर एक वचन लिया, और राजकुमार की गोद में जंगल की याद में सदैव के लिए प्राण त्याग दिए।
अंत समय फ्योंली ने ये वचन राजकुमार को दिया कि जब में मर जाऊँ तो मुझे जंगल मे तालाब के नजदीक दफना देना।
राजकुमार ने अंतिम वायदा निभाया और फ्योंली को जंगल में तालाब के नजदीक दफना दिया, राजकुमार की आंखों में आंसू थम नही रहे थे वहीं जब जंगल में बंदर हाथी शेर बाघ तितली पेड़ पौधों ने फ्योंली की मरने की खबर सुनी तो सब बिलखने लगे, शेर दहाडने लगा, हाथी चिंघाडने लगा, भेडिए भौंकने लगे, मृग मिमियाने लगे, बंदर रोने लगे सबका रोकर बहुत बुरा हाल था।
सबने खाना पीना छोड दिया और तालाब किनारे बैठे बेसुध कई दिनों तक अचेत पडे रहे।
जंगल से महल तक सब लोग बहुत दुखी थे।
पर होनी को भला कौन टाल सकता?   राजकुमार फ्योंली से बहुत प्यार करता था, जब वो एक साल बाद जंगल में आया तो उसने देखा जहाँ पर फ्योंली को तालाब किनारे दफनाया था वहीं पर एक पीला सुंदर सा फूल खिला था, मासूम प्यारा कोमल बिल्कुल राजकुमारी की ही तरह!
बस राजकुमार के मुॅह से अनायास ही निकल पड़ा -'फ्योंली'-  और तब से वो फूल बसंत रितु में पहाड़ों में फ्योंली के नाम से जाना जाता है और बसंत रितु आगमन पर चैत्र नव संवत्सर पर दहलीज पर बच्चों द्वारा फूलदेई त्योहार के रूप मैं पूजा जाता है। 
फ्योंली पहाड़ मे बसंतोत्सव की दस्तक के साथ रितु परिवर्तन का प्रतीक और प्रकृति से फ्योंली जैसे बेपनाह प्यार का प्रतिबिंब है जो ये दिखाता है कि हम पहाड़ी प्रकृति को बेपनाह प्यार करते है, पूजते है, बतियाते है, दोस्ती करते है प्रकृति से- 
तभी तो हम कुळै की डाळी से भी बतियाते है- 
---'मुलमुल क्येकु हैंसणि छे तु, हे कुळै की डाळी।
हे चकुली, घ्येंदुडि हे हिंलास, कखि तू भूलि ना जैईं, मुंड बांधण मेरा ब्यो मा दगड्या, टक्क लगै क ऐईं'----
प्रकृति के प्रतिबिंब को बच्चे घोघा माता यानि प्रकृति माता मान कर सुख समृद्धि की कामना करते है,
----'जै घोघा माता, पैंया पाती फ्योंली का फूल'------
 सनातन धर्म की मजबूत जड़ों को सींचते हमारे पहाड़ों की सद्भावना देखिए- बच्चे अपनी ही दहलीज नही बल्कि पूरे गाँव  यथासंभव सामर्थ्य तक प्रकृति का जौं-जस देहलियों तक पहुंचाते है।
एक बानगी देखिए - जब पूरे खौळा घोघा नचाया जाता है-
-------''वळि खोळा, पळि खोळा घोघा नचाई''----

फुलदेई त्योहार की सबसे पवित्र बात  माया-मोह, छल कपट स्वार्थ से कोसो दूर, भगवान स्वरूप, नन्हे बच्चे ही डोळोर (डोली ले जाने वाले)  होते है तो पुजारी, फूलारी भी सब बच्चे।
पूरी दुनियाभर में अनूठा त्योहार पवित्र त्योहार है 'फूलदेई'।
जो एक और हमारी संस्कृति का द्योतक है तो दूसरी और प्रकृति पर्यावरण से जुड़ाव का प्रतीक, और  आस्था विश्वास से पट्ट चिपका। स्थानीय रोजगार रिंगाल की आधारशिला भी है ये पर्व, हर बच्चे के हाथों में रिंगाल की संजोळी इसका अहम हिस्सा है।
आज रैबासी प्रवासी उत्तराखंडी भी बड़ी धूमधाम से इसे देश परदेस में मना रहे है पर वास्तव में हमारी सरकारें जनप्रतिनिधियों ने हमारे लोकोत्सवों की तरफ सकारात्मक रवैया नही अपनाया?
वरना हमारे लोक में बसे इस पवित्र पर्व को क्या उत्तराखंड का पारंपरिक लोकोत्सव नही मान लेना चाहिए?
अगस्त्यमुनि घाटी में दस्तक जैसी टीम, दून घाटी में धाद टीम और भी बहुत सारे लोग जरूर आज इस संस्कृति को जीवंत बनाने की दिशा में सक्रिय है, और आपसी मेल मुलाकात से नौनिहालों के इस पर्व को खूब सुसज्जित
रूप देकर विशाल घोघा जातरा, फूलदेई महोत्सव, लेखन कार्यशाला  जैसे आयोजन कर सकारात्मक काम कर रहे है।
सोशल साइट पर इन त्योहारों को बचाने की होड सी लगी है पर भगवान करे हम अपनी परंपराओं से सोशल साइटों से इतर भी चिपके रहे।
और समय सामर्थ्यानुसार अपनी परंपराओं को समझें और निभाए।
आज जहाँ हम कोरोना वाइरस से इतने डरते मरे पड़े है कि हमारा विज्ञान, हमारा ग्यान, हमारा विकास सब प्रकृति तक वापस लौट रहा है   सब तुलसी, अदरक, मुलेठी, दालचीनी, शाकाहार फलाहार को जीवनचर्या का हिस्सा बनाकर स्वस्थ जीवन आरोग्यमस्तु की बाट जोहते दिख रहे है ऐसे में भला हम अपने प्रकृति से फूलदेई जैसे त्योहार के जुड़ाव को भला कैसे बिसरा सकते है तो आइये अपनी परंपरा अपनी विरासत पर गर्व करें।

----'अश्विनी गौड़, 'लक्की' दानकोट अगस्त्यमुनि रूद्रप्रयाग बिटि '-----

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