जलता रहूंगा............
ध्येय पथ पर शूल हैं तो ,
क्या मैं मंजिल को भुला दूं ।
पथ पर हैं कंकर बिछे तो,
क्या मैं सपन को सुला दूं।।
मैं मनुज हूं जो तिमिर में,
दीप बन जलता रहूंगा।
शूल क्या अंगार भी हों,
हास भर चलता रहूंगा।।
पिछौरी का छोर जानूं,
वृहद पिपासा नहीं है।
जानता हूं पार जाना,
लघुतर तमाशा नहीं है।।
मैं मनुज हूं ऋतु समझकर,
सुर को बदलता रहूंगा।
शूल क्या अंगार भी हों,
हास भर चलता रहूंगा।।
जन्मा तो हूं मैं अकेला,
मैं निकर का क्या करूंगा ।
तैरना है जब अकेला,
भय पकड़कर क्या करूंगा।।
मैं मनुज हूं ठौर पाने,
पल-पल मचलता रहूंगा।
शूल क्या अंगार भी हों,
हास भर चलता रहूंगा।।
प्रवहमान उर बनाकर,
गीत मैं गाने लगा हूं ।
वक्रपथ को भी सरल कर,
मुदित मैं जाने लगा हूं।।
मैं मनुज हूं वक्रपथ को,
विज्ञ बन छलता रहूंगा।
शूल क्या अंगार भी हों,
हास भर चलता रहूंगा।।
ठान लूं तो मैं गरल का,
सुधा सम ही पान कर लूं।
रेत को मुट्ठी में लेकर,
मैं कनक की खान कर लूं।।
मैं मनुज हूं किरण देने,
रात सम ढलता रहूंगा।
शूल क्या अंगार भी हों,
हास भर चलता रहूंगा।।
क्यूं करूं मैं खोज इसकी,
क्या लिखा है माथ मेरे।
त्याग दूं चिन्ता सकल ही,
शंक हैं जब साथ मेरे ।।
मैं मनुज हूं काल के संग,
काल सम ढलता रहूंगा।
शूल क्या अंगार भी हों,
हास भर चलता रहूंगा।।
©डा०विद्यासागर कापड़ी
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