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rigved ऋग्वेद

विश्वा उत त्वया वयं उदन्या इव!
अति गाहेमहि द्विष:!!
         ऋग्वेद  2-7-3
हे मनुष्यों ! (मनुष्य) जैसे जल की धारा प्राप्त स्थान को छोड़ कर आगे बढ़ जाती है
ऐसे ही शत्रुता व द्वेष का भाव छोड़ कर तू मित्रभाव को प्राप्त होकर शुभ कर्म कर .

शुभ प्रभातम
संकलन/प्रेषण.
राजेन्द्र सिंह रावत
दि०18/6/2017

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