विश्वा उत त्वया वयं उदन्या इव! अति गाहेमहि द्विष:!! ऋग्वेद 2-7-3 हे मनुष्यों ! (मनुष्य) जैसे जल की धारा प्राप्त स्थान को छोड़ कर आगे बढ़ जाती है ऐसे ही शत्रुता व द्वेष का भाव छोड़ कर तू मित…
उवसमेण हणेकोहं,माणं मद्यवंया जिणे! आयं चडज्जव भावेण,लोभ संतोषओ जिणे!! :--समणसुत्तं.736 क्षमा से क्रोध का हनन करें,मादर्व से मान का को जीतें ,आजर्व से माया को और संतोष से लोभ को जीतें. शुभ प्रभात…
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु :सश्र्रणोत्यकर्ण: स वेत्ति वेद्यं न च तस्यामि वेत्ता तमाहुरग्रयं पुरूषंमहान्तम्! श्वेता०3/19 परमेक्ष्वर बिना हाथों के पकड़ लेता है ,बिना पावों के गति करता है …
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