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वाह तेरी सोच ऐ इंसान wah teri soch ae insan

मेरी यह कविता एम्स अस्पताल में एक पांच वर्ष की छोटी सी बच्ची का ईलाज़ करवाने आये उस परिवार और उन जैसे और लोगो की सोच को समर्पित है किस तरह पाँच हज़ार का नाम सुनकर ब्रेन ट्यूमर का ईलाज़ करवाने से उन लोगो ने मना कर दिया सोच भी नहीं
ऐसे लोगो के घर बच्चे न हो ऐसी दुआ करता हूँ भगवान से।
सकते। उनकी बातो से एहसास हुआ कि वो एक बेटी है इसलिए उन्हें उसके जाने का कोई दुःख नहीं होने वाला। चिकित्सको और वहा पर आये और लोगो ने बहुत समझाने की कोशिश की स्वयं मैंने भी लेकिन वो उस बेटी का दादा तैयार नही हुआ और उसने उस बेटी के पिता को फोन किया तो उसने भी ईलाज़ से मना कर दिया।



वाह तेरी समझ क्या हो गयी ऐ  इंसान,
पाँच हज़ार महंगे लगे सस्ती लगी बच्ची की जान।
दया भी न आयी तुझे उस छोटी सी जान पर,
कैसे इलाज़ से इंकार कर दिया पराया उसे मान कर।

शायद ये तेरी सोच की कमी थी,
या फिर पास तेरे धन की कमी थी।
पर न जानेे क्यों ऐसा मुझे लगा,
तुझे बेटी की नहीं सिर्फ बेटे की पड़ी थी।

चाहत तो उन आँखों में भी जीने की थी,
लेकिन तुमने तो पलभर में वो आँखे बन्द कर दी।
तुझसे अच्छे तो वो है जो भ्रूण हत्या करते है,
इस दुनिया में लाकर मरने को मजबूर तो नहीं करते है।

कैसे इतना निर्दयी तू हो गया,
तड़पता तूने उसे छोड़ दिया।
किस तरह वो दर्द में जियेगी,
ज़िन्दगी के बचे दिन महीने साल।


अनोप सिंह नेगी(खुदेड़)
9716959339

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