मेरी मधुशाला...........
सुधा चुराकर नवल भोर से,निर्मित कर दी है हाला।
नेह अमी उर में है जिसके,
पी जाये वो मतवाला।।
बाँट रहा है सबसे मिलकर,
नित ऊर्जित करती हाला।
ऐक घूँट क्या पूरा उर है ,
नेह सुधा की मधुशाला।।
ऐक निकालूँ दो भर जाते,
जब-जब नेह भरा प्याला।
कहाँ सूखती है इस उर की,
ये गीतों की मधुशाला।।
शब्द जोड़ देती है एसे ,
गीतों की बनती हाला।
एक गीत का घूँट माँगता ,
माँ दे देती मधुशाला।।
मसि में इला मिला देती है,
भावों की मनहर हाला।
कागज पर बिखरा देती है ,
नवल गीत की मधुशाला।।
घोल , घोलकर अक्षर,अक्षर,
वही बनाती है हाला।
मैं क्या रचना कर सकता हूँ ,
गिरा बनाती मधुशाला।।
अनल न रखता रसना में मैं ,
न ही गरल की ही हाला।
मिला मिलाकर नेह सुधा को ,
नित रचता हूँ मधुशाला।।
इसमें कोई बाड़ नहीं है ,
नहीं लगाया है ताला।
कोई मतवाला पी जाये ,
उर की पूरी मधुशाला।।
जिसके उर में बन जाती है ,
नेह भरी पावन हाला।
उसको जीवन में मिलती है ,
सुख की पूरी मधुशाला।।
©डा० विद्यासागर कापड़ी
सर्वाधिकार सुरक्षित
1 टिप्पणियाँ
बहुत ही सुन्दर रचना।
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