चाहत............
सुमित्र बनाने की है उर में चाह गहन सी,
अरे पतित हूं या हूं पावन कैसे कह दूं ।
हां सुप्त है मेरे उर के सपनों का कानन,
अरे आ गया मधुरिम सावन कैसे कह दूं।।
मुझे दूसरों को जानकर करना क्या है,
नहीं हुआ है मुझसे अब तक मेरा परिचय।
मीत बनूं तो उतर सकूंगा कभी खरा मैं,
मुझे स्वयं ही कभी-कभी हो जाता संशय ।।
आया क्यूं हूं जाना मुझको कहां बताऊं,
मुझे पता क्या ,क्या जीवन का है प्रयोजन ।
उड़ना तो था मेरे उर को नील गगन में,
बनकर पागल चुना इसी ने भू पर बन्धन ।।
सुख के दिन तो सभी आपको हैं पहिचानें,
आता समय बुरा फेरे मुंह दुनिया सारी ।
हाथ पकड़ता एक बार फिर नहीं छोड़ता,
ऐसा सांचा मीत एक ही है बनवारी।।
बनवारी का प्रेम मिले तो हास मिलेगा,
इसी आस में नयनों को नित करूं ओद मैं।
जाने कौन घड़ी तब वो बरसाकर करुणा,
भरे हास अधरों पर लेकर मुझे गोद में।।
©डा०विद्यासागर कापड़ी
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