सब खंद्वार सब लम्पसार
अंद्वार जो छा यख
सब बणिगीं उंदै का
मायादार ।
सर्या गौं मा
कूडि पचास
आदिम चार ।
ढक्यां छी
घर घरु मा
छैंदा मवसि
का द्वार ।
म्यार मुल्क की
ई च अब
तिसलि अंद्वार ।
सग्वडि पत्वडि
बांझि प्वडि छीं
मनखि बताणा
अफ्थै हुश्यार ।
घुर्तम घुर्त्यो
कैरिकी खूब
चिताणा छी
चलक्वार ।
सिकासैरियूंमा
बिराणा छी
स्यो त्यार
यो म्यार ।
द्यख्ये जावा त
सुद्दि कुछ ना
सब खंद्वार
सब लम्पसार ।।
वीरेन्द्र जुयाळ "उप्रि" उर्फ अजनबी
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