क्या ये वही पहाड़ है?
भाग - 3
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बालण पुजै |
बधाण/ बालण पुजै:- गाय या भैंस के बछड़ा/बछिया के जन्म जन्म के बाद 11वें या 21वें दिन की जाने वाली पूजा।
बधाण पूजा आपने भी कई बार देखी होगी हो सकता है प्रान्त अनुसार अलग हो लेकिन होती सभी जगह है। यह पूजा का साथ भी हर परिवार का अलग और निश्चित होता है। अक्सर दादा हमे अपने साथ लेकर जाया करते थे।
घास काटती महिलाये |
पलिंथरा पर दराती को धार लगाती महिला |
च्यूं / मशरूम |
बरसातों के समय जंगलो में च्यूं(मशरूम के भिन्न भिन्न प्रकार) स्वतः ही निकल जाए करते थे, इन्हें लेने सुबह सुबह छाता लेकर हम चल दिया करते। ऐसे मौसम में जौक(एक प्रकार का कीड़ा जो शरीर के जिस हिस्से से चिकत है खून के साथ ही छोड़ता है और तंबाकू या नमक से छुड़ाया जाता है।) का भी खतरा बना रहता है मुझे स्मरण है कि जब मैं और मेरी बुआ जंगल मे मशरूम लेने गए थे और मेरे पांव में ये जौक चिपक गया और खून रिसने लगा था, मैं बच्चा होने के कारण काफी डर गया और रोने लगा इसलिए बुआ और मैं जल्दी ही वापिस लौट आये थे।
जोल मिट्टी को समतल करते हुए |
खेतो में काम करते हुए बीच मे घर से रोटी सब्जी लेकर आना बैलों को भी आराम मिलता था और खेत मे काम करने वालो का ये नाश्ते के समय होता था। ऊपर नीचे हर खेत मे बारी बारी ऐसे ही सभी के घरों से खाना और चाय आती और फिर एक दूसरे के खेत मे चाय पीने पहुँच जय करते थे। यहां से खेत का काम खत्म कर तुरंत बैलों को अपना रास्ता मालूम होता था सीधे नदी में जाना वहां पानी पीना और फिर घास चर कर अपने घर लौटना परिवार से कोई एक सदस्य इन बैलों के साथ होता था। जितनी जरूरत होती उतना गेंहू पीसना लगभग
हर रोज जंदरू(हाथ चक्की) से कभी गेहूं तो कभी मंडुआ पीस लिया करते थे। एक तरफ माँ और दूसरी तरफ चाची बैठ जाती और दोनों मिलकर गेंहू/मंडुआ पीसते तो कभी अकेले ही पीसना पड़ता था। यदि किसी को गांव में कुछ हो जाता तो डॉक्टर के आने और जाने के समय मे उसका रास्ते मे इंतज़ार करना और फिर रोग बताकर दवा लेना।
जन्दरू में गेहू पीसती महिला |
मक्खी तो देखी थी लेकिन मच्छर किसे कहते है हमे मालूम ही नही था। हा मधुमक्खी थी और उसका शहद घरों में ही जलठो/ब्यारो(मधुमक्खी जहा अपना छत्ता बना लेती थी या एक छोटी सी इनबिल्ट अलमारी भी कह सकते है) में अपना छत्ता बनाती और फिर वही से कुछ समय बाद दादी या माँ या दादा शहद निकालकर किसी बर्तन में रख लेते। ये शहद कभी खराब नही हुआ करता था आज के शहद में तो एक्सपायरी लिखकर पहले ही आ जाया करती थी।
चांदनी रातो में रात देर तक मिर्च तोड़ना और उसमें से मिर्चो को अलग अलग करना, तो कभी अखरोट को उनके छिलकों से अलग करना। दादा की अंगीठी में आग सेकना। काठ के बक्से और बड़े बड़े तख्तो से तैयार बक्से आज भी बहुत से लोगो के पास होंगे। पलंग जिसमे सिरहाने की ओर बीच मे एक शीशा लगा होता था एक समय उस पलंग का भी था। स्वयं से बैट तैयार करना अपने हाथों से ही कपड़े की मजबूत बॉल तैयार करना। फिर इसी बॉल से कभी बैट बॉल तो कभी पिट्ठू खेलना।
जिबाल:- चूहेदानी या थाली से चिड़िया पकड़ना। आँगन में थोड़ा अनाज डालना और एक लकड़ी पर लम्बी रस्सी बांधकर लड़की खड़ी कर उसपर थाली को हल्का से झुका देना और जैसे ही चिड़िया दाना चुगने आये तो फुर्ती से रस्सी खिंचकर चिड़िया को थाली के नीचे दबा देना, ये भी हमारे खेल थे। पेड़ पर बैठकर पेड़ को गाड़ी बना लेते और इसके पत्ते टिकट होती थी। और हम ड्राइवर कंडक्टर और सवारी होते थे।
पंदेरे(पानी का कुआं) में पानी लेने जाते तो बर्तन का ढोल बना लेते रास्ते भर। अब अक्सर पानी के नजदीक प्याज़ की क्यारियां भी होती थी जिसकी भी हो इससे क्या प्याज़ उखाड़ो और खाओ मिर्च के साथ इसकी मिठास भी बड़ी स्वादिष्ट होती थी। फल बिकते है ये पता था लेकिन लोग हमारे पहाड़ो में आकर पेड़ का सौदा कर जाया करते थे ये पता नही था कि 1 किलो आधा किलो भी बिकते होंगे।
नथ और कुमाउनी टीका व पिछोड़ा |
शादी ब्याह में अगर कुमाऊँ क्षेत्र की बात करूं तो महिलाओं का परिधान लगभग एक सा होता था, जिसमे लाल और पीले रंग का पिछोड़ा(चुन्नी की तरह) रहता था नाक में गोल नथ और टीका सिर्फ माथे तक ही नही बल्कि नाक से लेकर माथे तक टीका होता था। जैसा कि मैंने अपने पिछले लेख में बताया था मैं दुशान(कुमाऊँ गढ़वाल के मध्य) क्षेत्र से हूँ तो, मेरा सौभाग्य रहा है कि हमने दोनो तरफ के रहन सहन को देखा है रीति-रिवाजों को देखा है। बुलाक(नथ की ही तरह नाक में ही बीच मे) पहनी जाती है। ये गढ़वाल क्षेत्र में काफी प्रचलन में थी। लेकिन अब लगभग बिल्कुल लुप्त हो चुकी है। नथ के अलावा गले में हसुली(चन्द्रहार), गुलबंद(हार के जैसा) गले में पहना जाता था। नथ से याद आया एक समय मे टीवी पर एक कार्यक्रम आता था नौ तोले की नथ ये उत्तराखंड पर आधारित है।
नोट: इस कार्यक्रम के बारे में सुना है देखा नही है।
आंगन की लिपाई |
हा लेकिन इतना स्पष्ट होता है कि नथ की शुरुआत उत्तराखंड के रजवाड़ो से ही शुरू हुई थी। आगे आने वाले लेखों में नथ, नथुली व बुलाक पर विस्तार से लिखने का प्रयास करूंगा। दुनियाभर में मशहूर नथ भी टिहरी, उत्तराखंड की ही है। घर में और आंगन में गोबर और मिट्टी मिलाकर फिर लिपाई की जाती थी, घर के बहार ऊपर चूना और नीचे लाल मिट्टी से पुताई
होती थी।
जन्दरू के ऊपर ड्वारा |
घरो के जंगले में मुंगरी(भुट्टा) के जोड़े बनाकर लटके होते थे ड्वारा(बांस से निर्मित एक तरह का भंडारण पात्र जिसमे अनाज आदि रखे जाते थे इसमें भी गोबर और मिट्टी से लिपाई की जाती थी।
खुम/ पलाकुंडी(घास काटकर सुरक्षित रखना भविष्य के लिए) बना कर रखा करते थे ताकि बर्फ़बारी जैसे मौसम में गाय भैंस आदि के लिए जरूरत पड़ने पर काम आ सके।
मुंगरी के झोड़े |
अगले अंक में कुछ नया लेकर फिर से प्रस्तुत होऊंगा।
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अनोप सिंह नेगी(खुदेड़)
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