सभी साथियो को जन्माष्टमी की बहुत बहुत शुभकामनाये।

सच में गाँव में लगने वाले मेले की एक अलग ही रौनक होती है पूरे दिन रोमांच बना रहता है। आज इसे मैं ठीक उसी प्रकार से लिख रहा हूँ जैसे मैंने सालो पहले नब्बे के दशक में देखा था लगभग 1989 से 1992 तक इसके पश्चात कभी ये सौभाग्य बन ही नही पाया कि गाँव के किसी मेले जाने का मौका मिला हो।
आज इस लेख को लिखते हुए मैं उस मेले को अपने ज़हम में बिल्कुल वैसे ही देख पा रहा हूँ जैसा तब देखता था। जैसे ही मेले में प्रवेश किया करते थे सबसे पहले जलेबी की दुकान उसके बाद चूड़ी बिंदी आदि की दुकाने आगे चलते हुए बच्चों के खिलौनों की दुकाने जिन्हें देख हम बच्चे आकर्षित हो उठते थे, आप लोगो को भी तो यद् होगा न लोहे का वो तोता जिसे फंख फ़ैल जाते थे और चु चु की आवाज़ भी आती थी उसमे, गले के ताबीज़ जिसके दो दांत बने होते थे। कही चाय समोसे की दुकाने कही पर सुनार भी बेख़ौफ़ होकर अपनी सोने चाँदी के आभूषणों को बाजार में बिछा दिया करते थे और आज देखो लोग पानी पर भी ताले लगाते है। कही पर चरखी होती थी कही झूले लगे होते थे। और हम बच्चों के हाथ में 10 पैसा 5 पैसा 20 पैसा 25, 50 या धिक् से अधिक 1 रुपया होता था उसमे भी हम कितने खुश होते थे। और आज का वक़्त देखो जितने भी हो सब कम है।
वही एक किनारे पर कुछ लोग अपना गाने नाचने का आयोजन करते थे।
अनोप सिंह नेगी(खुदेड़)
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