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Yamkeshwar Ki Ramleela यम्केश्वर में रामलीला

आज बात यमकेश्वर की ...

यम्केश्वर में रामलीला

इतिहास विदों के अनुसार रामलीला मंचन की शुरुआत सोलवीं सदी में हुई तथा 18वीं सदी के मध्य काल तक रामलीला उत्तराखंड पहुंच चुकी थी कहते हैं कि प्रथम रामलीला कुमाऊं के अल्मोड़ा में सन् 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मंदिर में तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर स्वर्गीय देवी दत्त जोशी के सहयोग से हुई थी तथा यहीं से यह गढ़वाल के श्रीनगर पहुंची 1896 में पहली बार श्रीनगर में रामलीला का मंचन कमलेश्वर मंदिर में हुआ तथा श्रीनगर से पौड़ी पहुंची । पौड़ी की रामलीला आज यूनेस्को की धरोहर बन चुकी है । जिसका 1897 में पहली बार पौड़ी के कांडई गांव में मंचन किया गया था तथा 1908 से भोला दत्त काला, तारा दत्त गैरोला (साहित्यकार) व अल्मोड़ा के पूर्ण चंद्र त्रिपाठी (DEO) कोतवाल सिंह नेगी द्वारा इसे वृरहद रूप दिया गया । आज जिस किताब से रामलीला का मंचन होता है उसका नाम "श्री सम्पूर्ण रामलीला अभिनय" है ।जिसके लेखक छम्मी लाल ढ़ौंडियाल हैं । 1817 में जन्मे अम्बाशायर को श्रीनगर की रामलीला का जनक कहा जाता है । रामलीला में राधेश्याम बहरे तलीव, गीत, चौपाई, रागिनियों का महत्व रहा है तथा मालकोश, भीमप्लासी, जैजवंती का प्रयोग किया गया है । वाद्य यंत्रों में सारंगी, ढोलक, हारमोनियम, तबला आदि का प्रयोग किया जाता था ।
1896 से 1900 तक रामलीला दिन में हुई तथा उसके बाद से रात में प्रारंभ हुई । प्रारंभिक रामलीला में सरसों के तेल से बने मशालों का प्रयोग किया गया जो 1920 तक चला ।1920 से पेट्रोमैक्स का प्रयोग तथा 1971 से विद्युत व्यवस्था का प्रयोग किया गया । राम - भरत मिलाप का दर्शन यदि मंगलवार को पड़ता है तो उसे अगले दिन मंचित किया जाता है उसी तरह राम राज्यभिषेक हमेशा द्वादशी या त्रयोदशी को पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान के साथ संपन्न किया जाता है ।
यम्केश्वर में रामलीला के परिपेक्ष में जब हम बात करते हैं तो पूरे यम्केश्वर की रामलीला एक तरफ और आवॅई की रामलीला एक तरफ नजर आती है । यम्केश्वर में रामलीला प्रारंभ करवाने का श्रेय इसी गांव के निवासियों को है । कहते हैं कि श्री गौरी शंकर थपलियाल जी जो तत्कालीन समय में पौड़ी के थापली गांव के निवासी थे और जिनका पौड़ी की रामलीला में भी अहम योगदान था के पिताजी कुमुदानंद जी इन को लेकर आवॅई गांव में बस गए थे द्वारा 1916 में प्रथम बार आवॅई गांव में मंचन किया गया था तथा तब से लगातार यहां पर रामलीला होती आ रही है कहते हैं श्री गौरी शंकर थपलियाल जी इतना समर्पित थे कि उनके द्वारा हाथ से ही पर्दे का निर्माण कर दिया गया था जो बरसों बरस यहां की रामलीला की शोभा बढ़ाता रहा है । आवॅई गांव की रामलीला संभवतया गढ़वाल में श्रीनगर, पौड़ी के बाद होने वाली तीसरी रामलीला है क्योंकि 1896 के बाद से 1916 के बीच कहीं भी रामलीला मंचन होने का प्रमाण नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो उसमें यहां के कलाकार या पात्र जरूर शामिल रहे हैं ।गौरीशंकर थपलियाल जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया रूपचंद कुकरेती ने इनकी हस्तलिखित पुस्तक से ही आज तक की रामलीला का मंचन होता है जिस को आगे बढ़ाने का कार्य किया नीलकंठेश्वर उनियाल ने जो प्रधानाध्यापक थे पूर्व में यहां की रामलीला गोपीराम मलासी और रामस्वरूप चौधरी के खेत में होती थी । 1951-52 से रामलीला का स्थान बदला गया तथा आज सामूहिक श्रमदान द्वारा तैयार राज राजेश्वरी देवी मंदिर के पास के स्थल मैं प्रारंभ की गई । धनवीर सिंह पुत्र बलबीर सिंह व प्यारे सिंह चौधरी जिनकी उम्र 80 वर्ष से ऊपर है बताते हैं कि पैदा होने के बाद जब से होश संभाला है तब से हर वर्ष रामलीला से जुड़ा हूं वह कहते हैं कि रामलीला के प्रारंभ में 1916 से 1920 तक दलीप सिंह पुत्र मगन सिंह द्वारा राम का रोल निभाया गया था तथा ऐसे ही पहले रूपचंद कुकरेती द्वारा तथा बाद में गुलाब सिंह पुत्र छवाण सिंह द्वारा रावण, बलबीर सिंह पुत्र गितार सिंह द्वारा हनुमान व नारद, प्रताप सिंह पुत्र जमन सिंह द्वारा परशुराम, बनवारी सिंह पुत्र जमन सिंह द्वारा सुपर्णखा व ताड़का के पात्र के रूप में प्रतिभाग किया जाता था । यहां की रामलीला में एक विशेषता यह भी थी कि पात्र वंशानुगत होते थे पिता के बाद स्वत: ही पुत्र पात्र का अभिनय करता था तथा यहां के पात्रों को ढांगू व यमकेश्वर के अन्य छेत्रों में भी दूर - दूर तक बुलाया जाता था । यहां की रामलीला अपने जीवन काल में मात्र 6 वर्षों के लिए नहीं हो पाई जब अचानक बीच में पलायन की मार इस गांव पर भी पड़ी और और कुछ लोग अपनी जीवनचर्या हेतु गांव छोड़कर चले गये । 2013 से एक बार फिर नए सिरे से यह रामलीला लगातार होती चली आ रही है वर्तमान में श्री दिगंबर सिंह रावत, शिव प्रसाद उनियाल, प्यारे सिंह चौधरी, धनवीर सिंह, शैलेंद्र थपलियाल आदि की प्रेरणा व समर्पण से लगातार गतिमान है आज की रामलीला में राम गमन नेगी, लक्ष्मण राहुल उनियाल, भरत रोहित उनियाल, सीता साहिल चौधरी, रावण किशोर सिंह बिष्ट, हनुमान हेमंत थपलियाल आदि मुख्य पात्रों में रहते हैं यमकेश्वर के परिपेक्ष में इसके बाद 1952 में केदार सिंह मास्टर के नेतृत्व में मराल में होने का पता चलता है परंतु यह 5 वर्षों तक ही हुई उसके बाद बंद हो गई । कांडी में 1955 के दौरान रामलीला प्रारंभ हुई जो बीच में दस वर्षों तक बाधित रहने के बाद विगत छः सालों से लगातार चल रही है । जिसके प्रारंभ का श्रेय स्वर्गीय डबल सिंह पुत्र भगवान सिंह जो कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे को जाता है यह रामलीला एक गांव तक ही सीमित नहीं रही बल्कि इसे देखने को नजदीकी गांव के लोग आते थे तो इसमें भाग लेने वाले पात्र भी अलग-अलग गांव ढ़ुंगा अमगांव आदि से संबंधित थे । बकौल सुमन सिंह नेगी प्रारंभिक समय में राम- दयाराम बडोला ढ़ुंगा, सीता- योगबंर सिंह, रावण- महानंद बडोला अमगांव, परशुराम- टीकाराम बडोला अमगांव, केवट- चितौड़ सिंह, अंगद- मनोहर सिंह, सुमंत- आलम सिंह कांडी आदि गांव के व्यक्ति थे । इस रामलीला को पहली बार महिलाओं को घर से बाहर दूसरे गांव में जा कर देखने हेतु प्रोत्साहित करने का गौरव हासिल है इससे पूर्व की रामलीला में महिलाएं अपने गांव की रामलीला में तो जा सकती थी परंतु अन्यत्र गांव में नहीं जाती थी तो दूसरा यह इस लिहाज से भी प्रथम रामलीला थी जिसमें सभी पात्र अलग-अलग गांव से सम्मिलित थे । एक समय में राम- बुद्धिराम, हनुमान- रामकृष्ण, दशरथ- दयाराम द्वारा अभिनय किया गया था ऐसा कहा जाता है कि तत्कालीन समय में मंच पल्लुओं के द्वारा तैयार किया जाता था तथा अक्सर दिवाली के बाद खेत का काम खत्म होने के पश्चात ही आयोजन किया जाता था । इसके बाद 1955-56 में किमसार में झगुड़ पदान के नेतृत्व में होने का पता चलता है जिसमें स्वंय उनके द्वारा रावण की भूमिका अदा की गई थी ।ताल क्षेत्र में 1959-60में रामलीला के मंचन नजदीकी गांव बड़काटल के बेलवालों के द्वारा किया गया था । जिसमें राम- शिवप्रसाद बेलवाल, लक्ष्मण- प्रेमलाल कंडवाल ( जो वहां पर घर जवांई थे ) रावण- सदानंद लखेड़ा भोगपुर, सीता- बुद्धि सिंह कण्डरह ने भूमिका अदा की थी । 1965 में यमकेश्वर व गैंडखाल में हुई । गैंडखाल क्षेत्र में सर्वप्रथम झिंगरी खाल में श्री कुंदन सिंह द्वारा करवाया गया परंतु बाद में प्राथमिक विद्यालय गैंडखाल में पूर्व ज्येष्ठ प्रमुख श्री रणजीत सिंह के निर्देशन में होने का पता चला चलता है जिसमें स्वयं उन्होंने हनुमान का किरदार निभाया था इस रामलीला में राम- सतीश चंद्र गैंड , रावण- मणीलाल परंदा , व खुशाल सिंह ढौंर, लक्ष्मण- प्रकाश चंद्र गैंड द्वारा प्रतिभाग किया गया यहां पर रामलीला का मंचन शुरुआती दौर में लगातार 8 से 10 साल तक रहा तत्पश्चात बंद हो गई । तत्पश्चात 1971-72 में बिनक क्षेत्र में व 1974-75 में दिउली के हिंडोला बाजार में शक्तीशैल कपरवाण पैंया, भगतराम कंडवाल, धर्मानंद,व जयपाल सिंह नेगी बणास तल्ला के समन्वय व सहयोग से आयोजित की गई इस रामलीला में राम- दिलावर सिंह बणास तल्ला, रावण- दयाल सिंह रावत बणास तल्ला, हनुमान- पुष्कर सिंह धमांद, सीता-भेलडुंग गांव से व लक्ष्मण- बैरागढ़ गांव से थे । इसमें कोठार के भगत सिंह ने कॉमेडियन के साथ-साथ हारमोनियम वादक के रूप में भाग लिया था व मनोहर श्याम कंडवाल बणास तल्ला डायरेक्टर थे रामलीला मंचन के दौरान सन् 1974 में इन लोगों ने दिउली इंटर कॉलेज मैनेजमेंट के सौजन्य से तीन दिवसीय 'राजा हरीशचंद्र' व ' श्रवण कुमार ' नाटक का भी मंचन किया था जो अपनी तरह का एक अलग प्रयोग था सन् 1978-79 में प्राथमिक विद्यालय दिउली में वेदकिशोर शर्मा, शशि कंडवाल आदि के नेतृत्व में 4 जून से 11 जून तक 7 दिनों की रामलीला हुई थी तथा 1981-82 में इड़िया गांव में वेदप्रकाश भट्ट जी के नेतृत्व में रामलीला का आयोजन किया गया था । हालांकि इनके अतिरिक्त बाड़यूं,हर्षू,धारकोट आदि अन्य स्थानों में भी रामलीला का आयोजन किया गया परंतु वे बहुत सीमित थे व अल्प समय तक ही आयोजित की गई वर्तमान में आवॅई के अतिरिक्त कुछ अन्य स्थानों पर ही यह मंचित होता है 7 से 10 दिनों की मैराथन मंचन में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है कहीं पात्रों की कमी तो कहीं धन का अभाव फिर भी कुछ लोगों के द्वारा किया जा रहा है यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है ।

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